सावित्रीबाई फुले: महिला शिक्षा की अग्रदूत

NEWS SAGA DESK

सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक सुधार को अपने जीवन का मिशन बना लिया। उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा देने, छुआछूत मिटाने और महिलाओं को शिक्षित करने के लिए समाज की रूढ़िवादी सोच से जमकर संघर्ष किया। उस दौर में महिलाओं को घर की चारदीवारी तक सीमित रखा जाता था। हालाँकि, इस्लामिक आक्रमणों से पहले भारतीय समाज में महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने की स्वतंत्रता थी लेकिन बाद में उन्हें शिक्षा से वंचित कर दिया गया।

सावित्रीबाई ने इस सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और महिलाओं के जीवन में शिक्षा का प्रकाश फैलाने का संकल्प लिया। इसके लिए उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। समाज के दकियानूसी लोगों ने उन पर कीचड़ फेंका, उनका अपमान किया लेकिन वे अडिग रहीं। उनके विवाह के समय वे मात्र 9 वर्ष की थीं, जबकि उनके पति ज्योतिबा फुले 13 वर्ष के थे। यह विवाह 1840 में संपन्न हुआ। पेशवाओं द्वारा पुणे में दिए गए एक उपहार स्वरूप बगीचे के कारण उनके परिवार को ‘फुले’ उपनाम मिला।

सावित्रीबाई अपने मायके से एक पुस्तक लेकर आई थीं। इस पुस्तक ने न केवल उनके पति को प्रेरित किया, बल्कि दोनों को शिक्षा की ओर उन्मुख किया। स्वयं शिक्षित होने के बाद उन्होंने समाज में शिक्षा का प्रसार करने का बीड़ा उठाया।

1 मई 1847 को, उन्होंने पुणे के सगुनाऊ क्षेत्र में पहला स्कूल खोला, हालांकि यह अधिक समय तक नहीं चल सका। इसके बाद, 1 जनवरी 1848 को पुणे के भिडे वाडा में बालिका विद्यालय की स्थापना की गई, जो तत्कालीन ब्रिटिश भारत में किसी स्थानीय व्यक्ति द्वारा स्थापित पहला बालिका विद्यालय था। शुरुआती दौर में इस स्कूल में मात्र छह छात्राएं थीं, लेकिन वर्ष के अंत तक यह संख्या 40-45 हो गई। बाद में 18 सितंबर 1851 को पुणे में और 15 मार्च 1852 को बताल पैंठ में और विद्यालयों की स्थापना की गई, जिससे शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति आ गई।

महिला शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें भारत की प्रथम महिला शिक्षिका के रूप में जाना जाता है। इससे पहले 1829 में अमेरिकी मिशनरी सिंथिया फर्रार ने मुंबई में लड़कियों के लिए एक स्कूल की शुरुआत की थी। पारसी समुदाय ने भी 1847 में महिलाओं की शिक्षा के लिए एक विद्यालय खोला था।

सावित्रीबाई ने सामाजिक बुराइयों को मिटाने के लिए निडर होकर संघर्ष किया। उन्होंने विधवाओं के शोषण को रोकने के लिए पुणे में नाइयों की हड़ताल का आयोजन किया, ताकि विधवाओं का सिर जबरन न मुंडवाया जाए। उन्होंने रात्रि विद्यालयों की शुरुआत की ताकि दिन में मजदूरी करने वाले श्रमिक रात में शिक्षा प्राप्त कर सकें।

जातिगत भेदभाव के खिलाफ भी उन्होंने प्रभावी कदम उठाए। जब उन्होंने देखा कि दलितों को सार्वजनिक कुओं से पानी नहीं भरने दिया जाता, तो उन्होंने अपने घर का कुआं सभी के लिए खोल दिया। यह उस समय का एक क्रांतिकारी कदम था, जो सामाजिक समरसता की मिसाल बना।

सावित्रीबाई ने विधवा महिलाओं के लिए भी अनूठी पहल की। उन्होंने एक गर्भवती विधवा को आत्महत्या करने से रोका, उसकी डिलीवरी अपने घर पर कराई और उसके पुत्र को पाल-पोसकर डॉक्टर बनाया।

1897 में पुणे में प्लेग महामारी फैल गई। सावित्रीबाई और उनके पति ने पीड़ितों की निःस्वार्थ सेवा की। इस दौरान, वे स्वयं भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं और 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था “यदि किसी देश की प्रगति को मापना हो, तो वहाँ की महिलाओं की शिक्षा को देखना चाहिए।” सावित्रीबाई फुले ने अपने कार्यों से इस कथन को सिद्ध किया। आज, उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि महिलाएं न केवल शिक्षित हो रही हैं, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में सफलता के नए आयाम गढ़ रही हैं। सावित्रीबाई फुले के योगदान को सदा स्मरण किया जाएगा।

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