News Saga Desk
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि अगर किसी राज्य का राज्यपाल कोई विधेयक (बिल) राष्ट्रपति को भेजता है, तो राष्ट्रपति को उस पर 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा — यानी या तो मंज़ूरी दें या अस्वीकार करें। यह समयसीमा उस दिन से गिनी जाएगी जब राज्यपाल ने विधेयक राष्ट्रपति को भेजा हो। अगर किसी कारण से फैसला लेने में तीन महीने से ज्यादा समय लगता है, तो केंद्र सरकार को उस देरी का कारण संबंधित राज्य को बताना होगा।
राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेनी चाहिए
कोर्ट ने ये भी कहा कि जब किसी राज्यपाल को किसी विधेयक के असंवैधानिक होने का संदेह होता है और वो उसे राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को उचित होगा कि वे सुप्रीम कोर्ट से सलाह लें। संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से राय ले सकते हैं, और ऐसा करना पक्षपात या गलत मंशा के संदेह को भी खत्म करता है। ये फैसला तमिलनाडु सरकार की उस याचिका पर आया है, जिसमें उन्होंने राज्यपाल आर. एन. रवि पर आरोप लगाया था कि उन्होंने 10 विधेयकों को महीनों तक रोके रखा और बाद में बिना कारण बताए राष्ट्रपति को भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे “कानून के अनुसार गलत” बताया है।
फैसले के प्रमुख बिंदु:
• राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर 3 महीने में फैसला लेना होगा।
• देरी की स्थिति में कारण बताना ज़रूरी होगा।
• राष्ट्रपति को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट से सलाह लें।
• इससे समय और संसाधन की बचत होगी और गलत कानून बनने से रोका जा सकेगा।
• लेकिन कोर्ट ने यह भी चेतावनी दी है कि यह प्रक्रिया राज्यों के कानून बनाने के अधिकार में बाधा न बने।
अंतरराष्ट्रीय उदाहरण
फैसले में श्रीलंका का उदाहरण भी दिया गया, जहाँ राष्ट्रपति विधेयकों को सुप्रीम कोर्ट के पास भेजते हैं और अगर कोर्ट उसे संविधान के अनुसार सही मानता है, तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी ही होती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला राज्यों और केंद्र सरकार के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश है, जिससे संविधान के अनुसार सभी फैसले पारदर्शी और समयबद्ध तरीके से हों।
No Comment! Be the first one.