डिजिटल युग में बचपन और रिश्तों का संकट

News Saga Desk

डिजिटल युग ने जहां हमारी दुनिया को एक-दूसरे के बेहद करीब ला दिया है, वहीं इसके प्रभाव ने बच्चों के जीवन और पारिवारिक रिश्तों में गहरे बदलाव भी ला दिए हैं। आज के बच्चे आँगन की मिट्टी छोड़कर स्मार्टफोन, टैबलेट और गेमिंग की आभासी दुनिया में खोते जा रहे हैं। उनका बचपन अब स्क्रीन की चकाचौंध में डूबा है, जिससे न केवल पारिवारिक रिश्ते कमजोर हो रहे हैं, बल्कि उनकी मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक सेहत पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है।कुछ दशक पहले का बचपन आज से बिलकुल अलग था। आँगन में कंचे खेलना, मिट्टी में खेलना, दौड़-भाग और गली-मोहल्ले में दोस्तों के साथ मस्ती करना, हर बच्चे की जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा था। बच्चे पसीने से तरबतर होकर घर आते थे। माँ की ममता भरी थपकी और दादी की कहानियाँ उनके दिन की खुशी का आधार हुआ करती थीं। उस वक्त डिजिटल उपकरणों का नामोनिशान भी नहीं था।आज का बचपन बदले हुए दौर की पहचान है। बच्चे मोबाइल फोन, टैबलेट और वीडियो गेम्स की दुनिया में उलझे रहते हैं। वे घंटों एक छोटी सी स्क्रीन के सामने बैठकर आभासी पात्रों के साथ लड़ते-झगड़ते हैं, लेकिन असली दुनिया से उनकी दूरी बढ़ती जा रही है। वे पारिवारिक संवाद और वास्तविक सामाजिक मेलजोल से दूर हो रहे हैं।मनोवैज्ञानिक और शोधकर्ता इस बात पर सहमत हैं कि बच्चों में स्क्रीन टाइम का अत्यधिक उपयोग उनके मानसिक और शारीरिक विकास के लिए नुकसानदायक है।

राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2023 के अनुसार, 12-18 वर्ष के लगभग 75% बच्चे दिन में चार से छह घंटे तक मोबाइल या टैबलेट का उपयोग करते हैं, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक इस उम्र के बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम दो घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए। अधिक देर तक स्क्रीन देखने से बच्चों की नींद प्रभावित होती है, ध्यान केंद्रित करने की क्षमता घटती है और मानसिक तनाव बढ़ता है। इससे अवसाद, चिड़चिड़ापन और अकेलेपन जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं। साथ ही शारीरिक रूप से भी वे सक्रिय नहीं रहते, जिससे मोटापा, दृष्टि की कमजोरी और अन्य स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें बढ़ रही हैं।परिवार के सदस्य भी एक-दूसरे के साथ समय बिताने की बजाय अपने-अपने मोबाइल या डिजिटल उपकरणों में खोए रहते हैं। भोजन करते समय भी अधिकतर लोग फोन पर व्यस्त रहते हैं। बच्चों के साथ संवाद की कमी उनके और माता-पिता के बीच भावनात्मक दूरी बढ़ा रही है। बच्चे अपने मन की बात कहने में संकोच करते हैं, जिससे उनका मनोबल कमजोर होता है। परिवार में संवाद की कमी से बच्चों की समझ और सहानुभूति विकसित नहीं हो पाती। वे अपनी भावनाओं को सही ढंग से अभिव्यक्त नहीं कर पाते, जो रिश्तों में दरार का कारण बनता है। इसका असर उनकी सामाजिक व्यवहार, दोस्ती और रिश्तों की गुणवत्ता पर भी पड़ता है।स्क्रीन के सामने बिताया गया अधिक समय बच्चों के सामाजिक कौशल को प्रभावित करता है। वे वास्तविक जीवन के संपर्क में कम आते हैं, जिससे उनकी संवाद क्षमता, सहनशीलता और टीम भावना कमजोर होती है। बच्चे जो जीवन के अनुभवों और अलग-अलग लोगों से मिलने-जुलने से सीखते हैं, वे अनुभव डिजिटल माध्यम से पूरी तरह से नहीं हो सकते। भावनात्मक विकास के लिए भी पारिवारिक रिश्तों और सामाजिक मेलजोल की जरूरत होती है।

बच्चे अपनी खुशियों, दुखों और परेशानियों को परिवार या करीबी दोस्तों के साथ बांटकर मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हैं। परंतु डिजिटल युग में इस आदत का टूटना, बच्चों को अकेला और असहाय महसूस कराता है।आज के बच्चे अपनी दोस्ती को ‘फॉलोअर्स’, ‘लाइक्स’ और ‘कमेंट्स’ तक सीमित कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर जो मित्रता होती है, वह अक्सर सतही और अस्थायी होती है। आभासी मित्रों से मिलने वाली स्वीकार्यता अस्थायी संतुष्टि देती है, लेकिन असली जीवन के कठिन समय में वे समर्थन नहीं दे पाते। गेमिंग की दुनिया में बच्चे जीतने के लिए कई बार आपस में लड़ते हैं, झूठ बोलते हैं या अनैतिक रास्ते अपनाते हैं। यह उनकी नैतिकता और व्यवहार को प्रभावित करता है। खेलों की इस प्रतिस्पर्धा में बच्चों का आपसी प्रेम और सम्मान कम होता जा रहा है।बच्चों के इस डिजिटल मोह को समझना और नियंत्रित करना आज माता-पिता और शिक्षकों की जिम्मेदारी है। माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों के साथ समय बिताएं, उनकी रुचियों को समझें और उन्हें रचनात्मक गतिविधियों की ओर प्रेरित करें। उन्हें चाहिए कि वे बच्चों के मोबाइल और इंटरनेट के उपयोग पर नजर रखें और उचित समय सीमा तय करें। स्कूलों में भी डिजिटल लत के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए कार्यक्रम होने चाहिए, जहाँ बच्चों को डिजिटल संतुलन का महत्व समझाया जाए। बच्चों को प्राकृतिक खेलों, कला, संगीत और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि उनका मानसिक विकास स्वस्थ हो।सांस्कृतिक और सामाजिक बदलाव की जरूरतयह समस्या केवल व्यक्तिगत स्तर की नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव की भी मांग करती है। हमें समाज के रूप में यह स्वीकार करना होगा कि आभासी दुनिया कभी भी वास्तविक जीवन का विकल्प नहीं हो सकती। परिवारों को चाहिए कि वे पारिवारिक मुलाकातों और वार्तालाप को प्राथमिकता दें। समाज में सामाजिक मेलजोल को बढ़ावा देने के लिए सामूहिक खेल, त्योहार, मेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे बच्चे और परिवार आपस में जुड़ेंगे, भावनात्मक संबंध मजबूत होंगे और बच्चों का समग्र विकास होग। डिजिटल की दुनिया में खोया बचपन न केवल बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर डालता है, बल्कि पारिवारिक रिश्तों को भी कमजोर करता है। बच्चों की हँसी, खेल और रिश्तों की गहराई को बचाने के लिए हमें सजग और सक्रिय होना होगा।जरूरत इस बात की है कि माता-पिता, शिक्षक और समाज मिलकर यह सुनिश्चित करें कि डिजिटल तकनीक का उपयोग संतुलित और स्वस्थ तरीके से हो। बच्चों को वह बचपन दें जिसमें वे न केवल डिजिटल दुनिया के माहिर हों, बल्कि असली जिंदगी के रंग भी गहराई से महसूस कर सकें। आखिरकार, आँगन की मिट्टी की खुशबू, माँ-बाप की ममता और भाई-बहनों का साथ, जो भावनाओं से जुड़ी होती है, उसे कोई भी डिजिटल दुनिया कभी नहीं दे सकती। बचपन की यही मिठास, यही मासूमियत और यही रिश्तों की गूंज जीवन का सच्चा संगीत है, जिसे हमें सहेज कर रखना होगा।


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