News saga Desk
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका के बारे में कहा था कि पत्रकारों पर लोकतांत्रिक परम्पराओं की रक्षा करने और शांति व भाईचारा बढ़ाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। राष्ट्रीय अखण्डता के संदर्भ में पत्रकारिता की भूमिका की बात करें तो लोकतंत्र के अन्य स्तंभों के मुकाबले प्रेस की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि विश्वभर में भारत की प्रतिष्ठा के जो तीन प्रमुख कारण माने गए हैं, वे हैं जागरूक मतदाता, स्वतंत्र न्यायपालिका व स्वतंत्र प्रेस। भारत में प्रेस को जनता की एक ऐसी ‘संसद’ की उपाधि दी गई है, जिसका कभी सत्रावसान नहीं होता और जो सदैव जनता के लिए ही कार्य करती है। इसे समाज में परिवर्तन लाने का अथवा उसे जागृत करने के लिए जन संचार का सशक्त माध्यम माना गया है। प्रेस को समाज की चिंतन प्रक्रिया का एक ऐसा अनिवार्य तत्व माना गया है, जो उसे दिशा व गति देने में सक्षम हो। इसे जनता की ऐसी आंख माना गया है, जो सभी पर अपनी पैनी और निष्पक्ष दृष्टि रखे। प्रेस को जनता की उंगली माना गया है, जो गलत कार्यों के विरोध में स्वतः ही उठ जाती है। प्रेस को समाज के प्रति पूर्ण समर्पण के रूप में देखा जाता है। इसे केवल एक पेशा न मानकर जनसेवा का सबसे बड़ा माध्यम माना गया है।
प्रेस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ”प्रेस का प्रथम उद्देश्य जनता की इच्छाओं व विचारों को समझना और उन्हें सही ढ़ंग से व्यक्त करना है जबकि दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना और तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है।” वैसे भारत-पाकिस्तान युद्ध का उल्लेख करें अथवा भारत-चीन लड़ाई का या अन्य चुनौतीपूर्ण अवसरों का, प्रेस ने ऐसे हर अवसर पर अपनी महत्ता सिद्ध की है और कहना गलत न होगा कि हिन्दी पत्रकारिता का स्थान इसमें सर्वोपरि रहा है। चाहे हिन्दी भाषी टीवी चैनलों की बात हो या हिन्दी के समाचारपत्र अथवा पत्रिकाओं की, उनका देश की बहुसंख्यक आबादी के साथ विशेष जुड़ाव रहा है और इस दृष्टि से राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं विकास की दिशा में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
हिन्दी पत्रकारिता के 199 वर्षों के इतिहास में समय के साथ पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य बदलते रहे हैं किन्तु उसके बावजूद सुखद स्थिति यह है कि हिन्दी पत्रकारिता के पाठकों या दर्शकों की रूचि में कोई कमी नहीं आई। यह अलग बात है कि अंग्रेजी मीडिया और उससे जुड़े कुछ पत्रकारों ने भले ही हिन्दी पत्रकारिता की उपेक्षा करते हुए सदैव उसकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की कोशिशें की हैं किन्तु वास्तविकता यही है कि पिछले कुछ दशकों में हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी ताकत का बखूबी अहसास कराया है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी विश्वसनीयता बढ़ी है। यह हिन्दी पत्रकारिता की बढ़ती ताकत का ही नतीजा है कि कुछ हिन्दी अखबारों ने अनेक संस्करणों के साथ प्रसार संख्या के मामले में कुछ अंग्रेजी अखबारों को भी पीछे छोड़ दिया है।
हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत 30 मई 1826 को कानपुर निवासी पं. युगुल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के साथ हुई थी। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में कई समाचारपत्र निकल रहे थे। उदन्त मार्तण्ड की स्मृति में ही हर साल हिन्दी पत्रकारिता दिवस का आयोजन किया जाता है। उदन्त मार्तण्ड के बाद अंग्रेजी शासनकाल में अनेक हिन्दी समाचारपत्र व पत्रिकाएं एक मिशन के रूप में सामने आए किन्तु लंबे समय तक नहीं चल पाए। फिर भी कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने सराहनीय सफर तय किया। अब परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं और हिन्दी पत्रकारिता भी मिशन न रहकर एक बड़ा व्यवसाय बन गई है। किन्तु अच्छी बात यह है कि आज भी हिन्दी पाठक व दर्शक अपनी-अपनी पसंद के अखबारों व चैनलों के साथ पूरी शिद्दत से जुड़े हैं।
घर बैठे दुनिया की सैर कराने की बात हो या देश-विदेश की हर छोटी-बड़ी हलचल से लेकर तमाम ज्वलंत मुद्दों और हर प्रकार की नवीनतम जानकारियों को जुटाकर अपने पाठकों या दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की, व्यवसायीकरण के आरोपों या तमाम विरोधाभासों के बावजूद हिन्दी पत्रकारिता यह काम बखूबी कर रही है और आमजन के भरोसे पर खरा उतरते हुए हिन्दी पत्रकारिता आज आम जनजीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। अधिकांश हिन्दी समाचारपत्रों के अब ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध हैं। विगत कुछ वर्षों में देश में बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश करके अनेक सफेदपोशों के चेहरों पर पड़े नकाब उतार फैंकने का श्रेय भी पत्रकारिता जगत को ही जाता है, जिसमें हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को किसी भी लिहाज से कमतर नहीं आंका जा सकता।
जहां तक राष्ट्रीय अखंडता में प्रेस की भूमिका और इसके दायित्वों का प्रश्न है तो प्रेस के कई प्रमुख दायित्व माने गए हैं, जिनमें कानून व्यवस्था की खामियों को प्रकाशित-प्रसारित करना, अपने प्रयासों से शासन को सुव्यवस्थित करना व लोक हितकारी बनाना, पथभ्रष्टों को सन्मार्ग पर लाना, भ्रष्ट तंत्र को चौकन्ना बनाना, असामाजिक तत्वों पर कड़ी नजर रखना, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पर्दे की ओट में होने वाले दुष्कृत्यों, अत्याचारों व अन्याय का जनहित में पर्दाफाश करना, समाज व मानवता के गुनहगार चेहरों पर पड़े नकाब नोचकर जनता के सामने लाना, निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए धार्मिकता एवं राजनीति की आड़ लेने वालों के राज पर्दाफाश करना, समाज में स्वस्थ मानक स्थापित करना, लोक चेतना जागृत करना इत्यादि शामिल हैं। वर्तमान में देशभर में नैतिक मूल्यों में बड़ी गिरावट आई है।
हिन्दी पत्रकारिता भी इस नैतिक पतन का शिकार होने से नहीं बची है। फिर भी इतना संतोष तो किया ही जा सकता है कि इसने इसके बावजूद अधिकांश अवसरों पर सराहनीय भूमिका निभाई है। हालांकि आज के पूर्ण व्यावसायिकता के दौर में पत्रकारिता को अव्यावसायिक बनाए रखने की बात करना बेमानी होगा क्योंकि इस पेशे से जुड़े लोगों को भी अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए इसे एक व्यवसाय के रूप में अपनाना अनिवार्य होता गया है लेकिन व्यावसायिकता के इस दौर में भी इसे एक उद्योग-धंधे के रूप में स्थापित करने के प्रयासों के चलते पत्रकारिता के मानदंडों को ताक पर रखने की प्रवृति से तो हर हाल में बचना ही चाहिए।
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