महापुरुष स्वामी दयानंद सरस्वती की पुण्यतिथि आज

News Saga Desk
वैदिक धर्म के महान पुनरुत्थानकर्ता और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की आज पुण्यतिथि है। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के मोरबी जिले के टंकारा में हुआ था। उन्होंने भारतीय समाज को अंधविश्वास, सामाजिक कुप्रथाओं और रूढ़ियों से मुक्त कराने का संकल्प लिया और वेदों की ओर लौटो का संदेश दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने राष्ट्र को स्वराज्य का नारा दिया, जिसे बाद में महापुरुषों ने स्वतंत्रता आंदोलन की नींव बनाया। समाज सुधार और राष्ट्र जागरण के प्रति समर्पित इस महान ऋषि का निधन 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर (राजस्थान) में हुआ। आज उनकी पुण्यतिथि पर राष्ट्र उनके अद्वितीय योगदान, वैचारिक साहस और राष्ट्रनिर्माण में निभाई अमूल्य भूमिका को श्रद्धापूर्वक नमन करता है।
आधुनिक भारत के इतिहास में महर्षि दयानंद सरस्वती का स्थान अत्यंत उच्च है। 12 जन्म के समय उनका नाम मूलशंकर तिवारी था। मूलशंकर तिवारी आगे चलकर वही दिव्य पुरुष बने, जिन्हें विश्व महर्षि दयानंद सरस्वती के नाम से जानता है। उन्होंने न केवल वैदिक धर्म का पुनरुत्थान किया, बल्कि सामाजिक-धार्मिक सुधारों और राष्ट्रवादी चेतना की ऐसी धारा प्रवाहित की, जिसने आगे जाकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियाद को मजबूत किया। उनकी बहुप्रसिद्ध कृति सत्यार्थ प्रकाश भारतीय चिंतन पर अमिट छाप छोड़ने वाली पुस्तक है, जिसमें वेद-तत्व, धर्म-शास्त्र और मानव जीवन के आदर्श सिद्धांतों का प्रकाश मिलता है। उन्होंने भारतीय समाज को पहली बार 1876 में स्वराज्य भारत भारतीयों के लिए का नारा दिया, जिसे आगे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने जन-आंदोलन का स्वरूप दिया। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उन्हें आधुनिक भारत का निमार्ता कहा, जबकि श्री अरविंद ने उन्हें भारत की आध्यात्मिक शक्तियों को पुनर्जीवित करने वाला ऋषि माना।
प्रभाव और अनुयायी
महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रेरित प्रमुख हस्तियों में लालालाजपत राय, स्वामी श्रद्धानंद, पं. लेखराम, भगत सिंह, विनायक दामोदर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, चौधरी चरण सिंह, श्यामजी कृष्ण वर्मा, महात्मा हंसराज और सरदार पटेल सहित कई स्वतंत्रता सेनानी एवं सामाजिक नेता शामिल रहे।
प्रारंभिक जीवन और वैराग्य
दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के टंकारा (जिला मोरबी) में एक उदिच्य ब्राह्मण परिवार में हुआ। आठ वर्ष की आयु में उनका उपनयन संस्कार हुआ। शिवरात्रि के अवसर पर मंदिर में मूर्ति पर चूहे चढ़ते देख उन्होंने ईश्वर और मूर्तिपूजा के स्वरूप पर प्रश्न उठाया। इसी प्रश्न ने उन्हें जीवन-सत्य और धर्म की वास्तविक खोज की ओर प्रेरित किया। छोटी बहन और चाचा की मृत्यु ने उन्हें मृत्यु-दर्शन और जीवन के उद्देश्य पर चिंतन करने के लिए विवश किया। किशोर अवस्था में शादी तय होने पर भी उन्होंने सांसारिक जीवन को अस्वीकार कर दिया और 1846 में घर छोड़कर सत्य-अन्वेषण में निकल पड़े। उन्होंने लगभग 25 वर्षों तक देशभर में घुमक्कड़ी और आध्यात्मिक साधना की तथा मथुरा में स्वामी विरजानंद से वेद और संस्कृत का गहन अध्ययन किया। गुरु के आदेश पर उन्होंने वेद ज्ञान के प्रचार का संकल्प लिया।
विचारधारा और आंदोलन
महर्षि दयानन्द ने कहा कि वेद ही सत्य और धर्म के सर्वोत्तम प्रमाण हैं। उन्होंने कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म और ब्रह्मचर्य पर बल दिया। वेदों के आधार पर उन्होंने मूर्तिपूजा, तंत्रवाद, अवतारवाद, कर्मकाण्डों, पुराणों में असत्य कथाओं और सामाजिक कुरीतियों का खंडन किया। वे स्त्री शिक्षा, समानता, स्वराज्य और राष्ट्रवाद के प्रखर समर्थक थे। उन्होंने वेद, उपनिषद, वेदांग और दर्शन शास्त्रों को प्रमाण रूप में स्वीकार करते हुए गलत व्याख्याओं और अंधविश्वास का विरोध किया। देशभर में शास्त्रार्थ कर उन्होंने सनातन धर्म के मूल स्वरूप को स्पष्ट किया और जनता को वेद अध्ययन व वैज्ञानिक चिंतन के लिए प्रेरित किया।

आर्य समाज की स्थापना
10 अप्रैल 1875 को मुंबई में उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। इसका उद्देश्य नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उत्थान तथा विश्व को शांति और सत्य के मार्ग पर अग्रसर करना था। समाज के दस नियम सार्वभौमिक और मानव कल्याण पर आधारित हैं।
उन्होंने दस वैदिक सिद्धांत दिए, जो किसी जाति-धर्म विशेष के नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी हैं। उनके आंदोलन ने सैकड़ों गुरुकुल, विद्यालय, अनाथालय और राष्ट्रवादी संगठनों को जन्म दिया।
राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता चेतना
महर्षि दयानंद ने केवल धार्मिक सुधार नहीं किए, बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद की आधारशिला रखी। उनसे प्रेरित महान सेनानी लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानंद, श्यामजी कृष्ण वर्मा, भगत सिंह, सावरकर, मदनलाल ढींगरा, रामप्रसाद बिस्मिल, महात्मा हंसराज, सरदार पटेल ने आर्य समाज और दयानंद के विचारों से प्रेरणा लेकर स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।
समाज को दिया नया दृष्टिकोण
महर्षि दयानंद ने शिक्षा एवं सामाजिक जागरण पर विशेष बल दिया। उन्होंने कहा की स्त्री-पुरुष समान हैं, शिक्षा सबके लिए एक है, गोरक्षा और ग्राम-समाज की रक्षा और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना ही धर्म है। उनकी यह सोच आज के भारत के संविधान और सामाजिक व्यवस्था में स्पष्ट दिखाई देती है।
निष्कर्ष
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वैदिक ज्ञान और तर्कशील विचारधारा के आधार पर समाज सुधार और राष्ट्रचेतना का मार्ग प्रशस्त किया। उनके विचारों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को वैचारिक शक्ति दी। सत्य, शुचिता और राष्ट्रप्रेम पर आधारित उनकी शिक्षाएं आज भी प्रेरणास्रोत हैं।
आर्य समाज, गुरुकुल परंपरा, स्वदेशी चेतना, सेवा और संस्कार आज भी उनके आदर्शों को आगे बढ़ा रहे हैं। महर्षि दयानंद ने भारत को विचारस्वतंत्रता, शिक्षा, स्वदेशी और स्वराज्य की राह दिखाई। वे केवल धार्मिक गुरु नहीं, बल्कि राष्ट्र-निमार्ता और युगपुरुष थे।

Read More News

झारखंड में शिक्षा विभाग के फर्जी वादों का खुलासा, भाजपा प्रवक्ता अजय शाह ने संवाददाताओं को बताया

रांची | राजधानी रांची स्थित प्रदेश भाजपा कार्यालय में आज प्रदेश प्रवक्ता अजय शाह ने संवाददाता...

Read More