NEWS SAGA DESK
तीन दिन तक याचना करने के बाद भी जब समुद्र नहीं माना, तो श्रीराम को क्रोध आ गया और लक्ष्मण से बोले- बिना भय के प्रेम नहीं होता है। इसके बाद, उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए अग्नि बाण चलाने का निर्णय लिया और इसी के बाद समुद्र देव प्रकट हुए और क्षमा याचना की- श्रीराम के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। यहां रामकथा से जुड़े इस महत्वपूर्ण प्रसंग की चर्चा इसलिए आवश्यक प्रतीत हुई क्योंकि भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र, खासकर छत्तीसगढ़, बंगाल, झारखंड, बिहार व उड़ीसा राज्य करीब पांच-छः दशकों से नक्सलियों, नक्सलवाद व अर्बन नक्सली विचारधारा से रक्तरंजित रूप से ग्रसित रहा है। इन सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर आखिरकार वर्तमान मोदी सरकार को इस लाल आतंक के पर्याय को आत्मसमर्पण के लिए अंतिम रूप से चेताना पड़ा,“नक्सलियों के साथ कोई संघर्ष विराम नहीं होगा, केवल आत्मसमर्पण ही एकमात्र विकल्प है।” अब विनय की अंतिम सीमा समाप्त हुई।
लाल सलाम के नाम से लाल आतंक का पर्याय वर्षों तक भारत को भीतर से खोखला करता रहा, यह नक्सलवाद आज आखिरी सांस गिन रहा है। भारत ने आजादी के बाद जितना विकास देखा, उतना ही इस लाल आतंक ने उसे भीतर से लहूलुहान किया। जिन भोले व प्रकृति पूजक वनवासी अंचलों में कभी जनजाति गीतों की गूंज होती थी, वहां बारुद की गंध हवा में तैरने लगी। नक्सलियों ने वनवासियों से कहा कि वे उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन असल में उन्होंने उन्हीं के जीवन से मूलभूत अधिकार छीन लिये। उनके बच्चों को बंदूक थमाई, महिलाओं को ढाल बनाया। शहरों में बैठे अर्बन नक्सलियों का इसमें सबसे बड़ा हाथ रहा है। इन्हीं अर्बन नक्सलियों ने शहरों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर नक्सली आग को हवा दी और भारत के 17% भूभाग को लाल क्रांति के नाम पर छह दशक से लहुलुहान किया।
पूर्वोत्तर भारत के आंचलिक क्षेत्रों को विकास से वंचित रखा व अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का लंबे समय तक प्रयास किया। बंगाल के एक छोटे से क्षेत्र से शुरू हुआ यह लाल आतंक जैसे ही बंगाल में सत्ता में आया, नक्सलवाद वहां से गायब हो गया। इससे यही प्रतीत होता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत में नक्सलवाद के नाम पर सत्ता हथियाने के लिए विदेशी ताकतों के सहारे नक्सली बंदूक व हिंसा के दम पर सत्ता पाना चाह रहे थे। वामपंथी समर्थकों को वनवासियों के विकास की चिंता नहीं, बल्कि अपनी विचारधारा को जीवित रखने की चिंता है। हिंसा के दम पर सत्ता व शक्ति प्राप्त करने वाली विचारधारा।
नक्सलियों ने संविधान और न्यायिक व्यवस्था को निशाना बनाया, ‛जनता अदालत’ चलाकर समानांतर सत्ता कायम की। गवर्नेंस के अभाव में वहां विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य नहीं पहुंच पाया। हजारों बच्चे, बुजुर्ग व महिलाओं को अपने मूलभूत मानव अधिकारों से वंचित होना पड़ा। लेकिन मानव अधिकारों के पैरोकार वैश्विक संस्थाओं व संयुक्त राष्ट्र का इस ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं गया, आश्चर्य का विषय रहा है। इस लाल सलाम से निपटने के लिए गत 11 वर्षों में वर्तमान केन्द्र सरकार के संकल्प, सुरक्षाबलों की समन्वित कार्रवाइयों और जनजातीय सहयोग से स्थिति बदली है। लाल आतंक के खात्मे के बाद सही मायनों में शांति तब आएगी, जब विकास व न्याय जन-जन तक पहुंचेगा। मोदी सरकार के 11 वर्ष के कार्यकाल में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है।
70 के दशक की शुरुआत में नक्सलवाद और हथियारबंद विद्रोह की शुरुआत हुई। 1971 में स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा 3620 हिंसक घटनाएं हुईं और इसके बाद 80 के दशक में सबसे ज्यादा जनयुद्ध दल(पीपल्स वॉर ग्रुप) ने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार और केरल तक विस्तार किया। 80 के दशक के बाद वामपंथी गुटों ने एक-दूसरे में विलय की शुरुआत की और 2004 में प्रमुख भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(माओवादी) गुट का गठन हुआ एवं नक्सली हिंसा ने और गंभीर रूप ले लिया।
एक समय पशुपतिनाथ (नेपाल) से तिरुपति (तमिलनाडु-आंध्रप्रदेश) पट्टी तक को ‘लाल पट्टी’ (रेड कॉरिडोर) कहा जाता था। 1960-2014 तक 66 अभेद्य पुलिस थाने बने थे, मोदी सरकार के 11 वर्षों में 576 और नए थाने बनवाए। 2014 में नक्सल प्रभावित जिले 126 थे जो अब घटकर 18 रह गए और इनमें से भी ज्यादा प्रभावित 36 जिलों में अब वर्तमान सरकार की निर्णायक कार्यवाही व ‛भय बिनु होइ न प्रीति’ नीति पर चलते हुए अब यह लाल सलाम वाली पट्टी सिर्फ गंभीर प्रभावित छः जिलों में ही सिमट गई है।
जहां पहले की सरकारों के समय लाल आतंक के प्रति बिखरे हुए दृष्टिकोण से काम होता था, घटना-आधारित प्रतिक्रिया होती थी और कोई स्थायी नीति नहीं थी, एक प्रकार से सरकार की प्रतिक्रिया का नियंत्रण नक्सलियों के पास था। वर्तमान सरकार में गृहमंत्री के नेतृत्व में 2014 के बाद सरकार के अभियानों और कार्यक्रमों की कमान भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने अपने जिम्मे ली और यह एक बड़ा नीतिगत बदलाव है। विगत दिनों एक कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि बिखरे दृष्टिकोण की जगह अब एकीकृत और दृढ़ नीति को अपनाया गया है।
वर्तमान सरकार की नीति यह है कि जो हथियार छोड़कर आत्मसमर्पण करना चाहते हैं, उनके लिए स्वागत है, लेकिन अगर कोई हथियार लेकर निर्दोष वनवासियों की हत्या करेगा तो सरकार का संवैधानिक धर्म है कि वह उन्हें बचाए और हथियारबंद नक्सलियों से कड़ाई से निपटे। इसी नई रणनीति के परिणाम है कि अब तक लाल सलाम की समस्या का 90 प्रतिशत समाधान होने पर है और पीछले दो वर्षों 2024 में 881 व 2025 में अब तक 1241 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर दिया है।
अब आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की संख्या लगातार बढ़ रही है और निरंतर लाल सलाम की पट्टी समाप्ति की ओर है। जैसा कि साल 2014 में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब भारत सरकार ने संवाद, सुरक्षा और समन्वय- इन तीनों पहलुओं पर काम करने की शुरुआत की थी, इसके परिणामस्वरूप 31 मार्च , 2026 को भारत से हथियारबंद नक्सलवाद समाप्त हो जाएगा। श्रीराम के आदर्शों व संवैधानिक मूल्यों पर चलने वाली इस पवित्र भूमि पर रक्तरंजित लाल सलाम के लिए यह अंतिम दिवस होगा, हमें यही विश्वास है।
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